आज पहली बार लगा जैसे शायद किस्सों को हर दम सांझा करना भी सही नहीं। आपकी कहानियां आपकी ही परछाई होती हैं, हम दिन भर कहते रहते हैं पर उन अल्फाजों में जो नहीं कह पाते इन पन्नों में पिरोते हैं। आज ऑफिस का काम छोड़ कर वो छोटा सा ड्राफ्ट लिखा था। जो इतने दिनों से मरहम ना मिला मानो उस एक पन्ने ने दिया हो। सब एकदम सही तो नहीं था पर काफी बेहतर सा था। सोचा था अपने पास ही रहने दूंगी, फिर अचानक से दोस्त का कॉल आया पर मन बेचैन सा था तो उसे कुछ बात हो ही न पाई। काम का बहाना लगा कर मैंने भी फोन रख दिया। पर फिर लगा फोन सही वक्त पर आया है, और कुछ नहीं तो वो आज का लिखा पन्ना ही भेज दूं। वो समझ भी जाएगा और कुछ हद तक जानना शायद उसका हक भी था। तो याद आया कोई और भी है, जिसे वो जानना चाहिए। ईमेल लिखते लिखते लगा, दो और भी दोस्त हैं जिन्हें भेजना चाहिए तो फिर साथ एक और किस्सा भी भेज दिया। कुछ पल बाद जवाब कि बेचैनी सी होने लगी; पहले बुरा लगा फिर लगा जब इन दिनों मैं खुद, खुद में ही मशरूफ हूं तो उनसे कैसे शिकायत करूं। कुछ पल बाद एहसास हुआ न जाने क्या सोचेंगे, न जाने बेवजह भेजा ही क्यूं...पर फिर इस स